बहुत समय बाद महा देवी जी की मेरा परिवार पुनः कांपते हाथों से पढने को उठाई । (कांपते हाथों से उठाने का अभिप्राय शायद अनुभूतियों की तीव्रता से उत्पन्न बेचैनी को ना झेलने की मन: स्थिति ही हो सकती है ।) बढ़ते हुए पन्नों की संख्या के साथ बचपन की मीठी स्मृतियाँ चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजरने लगी । संवेदना का कहीं गहरे पैठ बना लेना महसूस हो आया । बालमन कितना निश्छल होता है ,सारे 'आ-जरुरी' पात्रों के लिए भी सुख दुःख महसूस कर पाना उन्ही के वश की बात है ।
इस समय खुद पर हँसूँ या संवेदना की गहराई मापूं ,समझ नहीं पा रही ...!
इस समय खुद पर हँसूँ या संवेदना की गहराई मापूं ,समझ नहीं पा रही ...!
उठते हुए गुबार में ... पहली कड़ी शेरू नजर आता है .. घी से चुपड़ी रोटी में चीनी लगाकर एक एक कौर बनाकर ..उसको खिलाना ।या फिर मम्मा से बहस करना की शेरू की रोटी मुझे बनानी है क्योकि उसे पतली रोटी पसंद है और आप मोटी रोटी बनाते हो आज भी उसके जाने की टीस आंसुओं का सैलाब उमड़ा देती है ।
तो कभी कोमू की द्रुत गति अनायास ही पीछा करने लगती है ... ना ना पप्पू उसे पूरा गाजर क्यों दिया ...वो छोटा बेबी है ...उसको छोटा पीस खाना है और पप्पू से छुरी छीन खुद ही छोटे टुकड़े बना कर हाथ से खिलाना ,भले ही काटते हुए उँगलियाँ शहीद हो जाएँ ।
उठते हुए गुबार में ... पहली कड़ी शेरू नजर आता है .. घी से चुपड़ी रोटी में चीनी लगाकर एक एक कौर बनाकर ..उसको खिलाना ।या फिर मम्मा से बहस करना की शेरू की रोटी मुझे बनानी है क्योकि उसे पतली रोटी पसंद है और आप मोटी रोटी बनाते हो आज भी उसके जाने की टीस आंसुओं का सैलाब उमड़ा देती है ।
तो कभी कोमू की द्रुत गति अनायास ही पीछा करने लगती है ... ना ना पप्पू उसे पूरा गाजर क्यों दिया ...वो छोटा बेबी है ...उसको छोटा पीस खाना है और पप्पू से छुरी छीन खुद ही छोटे टुकड़े बना कर हाथ से खिलाना ,भले ही काटते हुए उँगलियाँ शहीद हो जाएँ ।
दूर गगन के उड़ते पंछियों में आज भी निगाहें ना जाने क्यों गोला ... पिद्दी और फुसरा को ढूंढना शुरू कर देती हैं । राजपूत परिवार की बिटिया और अंडे ..मीट ..मछली से भयानक किस्म की दूरी राज है ... जो उन कबूतरों के अण्डों में छिपा है । वे अंडें जिनसे छोटे छोटे गुलाबी रंगत लिए बच्चे निकलते थे और जिनका रुई के फाये बनने तक का सफ़र ,कभी मेरी आँखों से छूटा ना था । जो मेरी जान से थे ... उनके जैसो को हजम कर लेना मेरी सोच से भी परे था ..।
कुछ और भी कड़ियाँ हैं ... वो मुझे आवाज देने वाला मिट्ठू ... वो लंगुरी बन्दर का बच्चा ....सफ़ेद चूचु ... और मेरी फिंच । कितना अलग अहसास है ...जिसे महसूस करने के लिए मेरी सी मन की आँखें चाहिए ..कोई पास नहीं है ...लेकिन कोई कभी दूर भी नहीं गया । इन कंकरीट के जंगलों में उन सबके अहसास जल के स्रोते जैसे ही हैं , जो आत्मा को तृप्त करते हैं । वक्त पलटता नहीं , लेकिन बचपन से शुरू हुआ ये संवेदनाओं का दौर आज भी अनवरत क्रम से बह रहा है , बस पात्र बदलने लगें हैं या ये कहूँ नए पात्र जुड़ने लगे हैं तो ज्यादा बेहतर होगा ।
प्रियंका राठौर
दूर गगन के उड़ते पंछियों में आज भी निगाहें ना जाने क्यों गोला ... पिद्दी और फुसरा को ढूंढना शुरू कर देती हैं । राजपूत परिवार की बिटिया और अंडे ..मीट ..मछली से भयानक किस्म की दूरी राज है ... जो उन कबूतरों के अण्डों में छिपा है । वे अंडें जिनसे छोटे छोटे गुलाबी रंगत लिए बच्चे निकलते थे और जिनका रुई के फाये बनने तक का सफ़र ,कभी मेरी आँखों से छूटा ना था । जो मेरी जान से थे ... उनके जैसो को हजम कर लेना मेरी सोच से भी परे था ..।
कुछ और भी कड़ियाँ हैं ... वो मुझे आवाज देने वाला मिट्ठू ... वो लंगुरी बन्दर का बच्चा ....सफ़ेद चूचु ... और मेरी फिंच । कितना अलग अहसास है ...जिसे महसूस करने के लिए मेरी सी मन की आँखें चाहिए ..कोई पास नहीं है ...लेकिन कोई कभी दूर भी नहीं गया । इन कंकरीट के जंगलों में उन सबके अहसास जल के स्रोते जैसे ही हैं , जो आत्मा को तृप्त करते हैं । वक्त पलटता नहीं , लेकिन बचपन से शुरू हुआ ये संवेदनाओं का दौर आज भी अनवरत क्रम से बह रहा है , बस पात्र बदलने लगें हैं या ये कहूँ नए पात्र जुड़ने लगे हैं तो ज्यादा बेहतर होगा ।
प्रियंका राठौर
आपने शब्दों के माध्यम से समय के अंतराल और महादेवी जी की किताब के बीच एक संवाद स्थापित कर दिया ... बहुत खूब ...
ReplyDeletedeep.
ReplyDeletebehtreen post...
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteमन की आँखे चाहिए .....
ReplyDeleteमन की आँखे ,ही कुछ चीजे देख सकती हैं ...जो सामान्य आँखों की एकोमोडेसन क्षमता से बाहर होती हैं |
सुंदर लेखन |
http://drakyadav.blogspot.in/2013/07/blog-post_26.html#comment-form
Bahut sunder abhivykti...
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