Monday, August 5, 2013

अधूरे तुम ... ( लघु कहानी )



उस फिसलन भरे समय में तुम्हारा आना भी , आभासी चादर ओढ़े किसी अप्रत्याशित घटना से कम ना था | कातर आवाजों और चीत्कारों के बीच वह पल अँधेरे में जुगनू सी चमक और अनदेखे सपने दे गया था | शायद पहली बार तुम्हे महसूस करने का क्रम शुरू हुआ था , जोकि अनवरत चलता रहेगा , कभी सोचा ना था | कतरनों से जोड़े गए सामान , तुम्हारे अनछुए स्पर्श का आभास कराते थे | मन खुशियों से भर उठता , तुम्हारी आहटों की गूँज सुनने को कान लालायित होने लगते | बस – पहिये से घूमतें समय में इन्तेजार शेष था !

तुम आ गए थे अपनी चिरपरिचित मुस्कान के साथ | क़दमों की थापों के साथ घूमतीं तुम्हारी आँखें , आत्मा तो रोमांचित कर देती थी | एक कमरे से दूसरे कमरे का सफर तय करने में भी वक्त लगता क्योकि तुम्हारी आवाजें पीछा करती और कदम खुद बा खुद तुम्हारे करीब ले आते | वक्त के साथ बंधन बंध रहा था | सिर्फ एक गति जो स्वरों से भरपूर है , पूरे जीवन का मायने बदल देती है | आप दूर जाना चाहें तो वह करीब खीचती है और जब करीब आ जाएँ तो आत्मा में समा जाती है | गति के अंतस में सामने का यही क्रम तो एक नए निर्माण या नए स्वरूप का प्रारंभ है |

स्वयं का रूपांतरण भी प्रक्रति ने निश्चित कर दिया था | सब कुछ बदल रहा था , हर दिन कोई नया संकेत लेकर आता था | और एक दिन अचानक सारी  संवेदनाओं को किनारे कर तुम दूर चले गए थे | जिन्दगी जो तुमसे ऊर्जा पा रही थी , एकाएक खामोश हो गयी | भीड़ , चौराहे , घर , बाजार , हर ओर तुम्हारी दी हुयी ख़ामोशी पसरने लगी थी | साथ ही अस्तित्व पर भी अपनी मुहर लगा रही थी | कि अचानक तुम फिर नजर आये | लेकिन इस बार – बारी ... तुम्हारी थी – स्वर विहीन होने की ... गति हीन होने की | मांस के लोथड़े से तुम .... क्या करूँ तुम्हारा .... कहाँ से शुरू करूँ .... या युहीं तुम्हे नियति को सौंप दूँ .... कशमकश थी , उलझन थी ... की तुम्हारे रुदन में एक स्वर सुनाई दिया , कुछ गति में झनझनाहट शेष महसूस हुयी | इसके साथ सब निश्चित हो गया , जीवन तो अब शुरू होना था , स्वयं से परे .... आधार से विलग ... संसार से विरक्त ...|

अब तुम थे , मैं थी और तुम्हारी स्थिर आँखें | जिनको समझ कर मुझे तुम्हारे चारों ओर  घूमना था | इस घूमने में कभी खीझ तो कभी झुंझलाहट होती , तो कभी प्रक्रति से ही वाक् युद्ध हो जाता , फिर भी तुम्हारी स्थिरता ठहराव नहीं दे पा रही थी | शायद ये समझने में वक्त लगा .. जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं | तुम पास थे लेकिन साथ नहीं , तुम्हे साथ लाना था | अब समय था , तुम्हे मन की आँखों से देखने का , महसूस करने का | कभी किसी तान पर चंचल होती नजरें .. या कुछ पाने के लिए थिरकती उँगलियाँ या कभी अनायास ही स्वर का उतार चढाव , समझ आने लगा था | लोगों से परे एक अलग ही दुनिया रचने बसने लगी थी | स्पर्श और भावनाओं की महत्ता अब समझ आती है | यही तो हैं , जो अर्थहीन निष्प्राण पिंड को भी गतिमान बना सकते हैं | शायद ईश्वर भी यही है .... भावनाओं और आशाओं का चरम .... जब कुछ नहीं होता ... तब वह होता है |

वक्त के कदम कभी ठिठके नहीं | हम तुम उसकी चाल से चाल मिलाकर बढ़ रहे हैं | सब कहते हैं तुम अधूरे हो , लेकिन मेरे साथ तो तुम पूरे हो | क्या कहूँ – तुम्हारी गति भी मैं , तुम्हारी नियति भी मैं ... अब तुम .. मैं और ये बंधन – बेनाम सा .. लेकिन अर्थों में ढला सा ... जिन्दगी से जुड़ा सा ... रिश्तों से परे | कल पर वश नहीं , फिर भी मुझे मालूम है , तुम्हारा सत्य निश्चित है | तुम नहीं होगे , तब तुम्हारे इस अधूरेपन के साथ , तुम पर एक कहानी लिखूंगी ... तुम्हारी पूर्णता के लिए | हाँ – अगले जन्म तुमसे फिर मिलना चाहूंगी क्योकि तुमसे बेहतर कोई नहीं |



प्रियंका राठौर 

4 comments:

  1. kya khoobsoorat ehsaah hai jo aapne likha hai.....aafareen...

    meri nayi post pe aapka swaagat hai:

    http://raaz-o-niyaaz.blogspot.fr/2013/08/blog-post.html

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  2. गहरा एहसास छोड़ जाती है आपकी कहानी ...

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  3. गजब की चाहत और बेबाकी की बधाई स्वीकारें

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  4. गहन भाव अभिव्यक्ति...

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