कभी उलझावों के समंदर में डूबने लगती हूँ ... तो अपने चिर परिचित प्रांगण में जाती हूँ .... आज फिर गयी थी .... घुमड़ते हुए सवालों के जबाब ढूंढने ..... वहाँ कुछ भी तो नहीं बदला ... वही मूर्तियां थीं ... वही खनकते हुए घंटों की आवाजें ..... बस साज सज्जा पहले से और बेहतर हो गयी थी .... कदम बढ़ रहे थे .... अचानक उसी जगह रुक गए .... जहाँ बचपन में रुकते थे .... वही कजरारी आँखों वाली देवी की मूर्ति के सामने .....
अतीत के झरोखों से छुटपन की खुद को मै देख रही थी .... मौसी की ऊँगली थामें .... बाल मन को वह मूर्ति इतनी सुन्दर दिख रही थी , की आगे बढ़ने का मन ही नहीं हो रहा था .... बस अपलक निहार रही थी ... जैसे गुड़ियों से भी प्यारी चीज दिख गयी हो ....मौसी से पूछा .... ‘गुड्डी मौसी ये किसकी मूर्ति है ?’ .... उन्होंने जबाब दिया .... देवी माँ की .... सबकी माँ हैं ..... ‘डग्गो रानी’ तुम्हारी भी ( वो प्यार से मुझे डग्गो रानी कहा करती थीं ) उनकी बात दिमाग में अपनी जगह बना चुकी थी ... मौसी पूजा की थाल लेकर आगे बढ़ गयी .... लेकिन बाल सुलभ कुराफाती मन , कुछ कल्पनाएँ गढ़ रहा था .... आँखों में बिजली चमकी और बिना कुछ सोचे समझे ४-५ वर्ष की मै झट जाकर मूर्ति की गोद में बैठ गयी और गले में बाँहों का हार डाल दिया .... तभी पुजारी ने देखा और मंदिर में हलचल मच गयी .... पुजारी मुझे उतारने की कोशिश कर रहे थे और मै जिद पकड़े थी ....नहीं उतरना है ...वो मेरी माँ हैं ..... कुछ देर में सारे वाकये की खबर मौसी को लगी .... वो मेरे पास आई और समझा कर मुझे नीचे उतारा .... मेरी आँखों से मोती गिरते जा रहे थे ... उन्होंने मुझे गोद में उठाकर पुचकारते हुए कहा --- ‘बच्चा --- वो सिर्फ तुम्हारी ही माँ नहीं हैं ... वो तो सबकी माँ हैं ... मेरी , तुम्हारी मम्मी की , हम सब की माँ ....उनको प्यार करने के लिए उनकी गोद में थोड़े ही ना बैठा जाता है ... सिर्फ आँख बंद करके महसूस करो .... देखो तुम्हारे सामने मुस्कराते हुए आ जाएँगी ...’ समय का चक्र बढ़ता गया .... लेकिन मौसी की बात कहीं आत्मा तक अपनी पैठ बना चुकी थी ..... जो आज भी खुशबु की तरह मुझे महकाती है ......
माँ की मूर्ति देखते ही खूबसूरत लम्हों की यादे चलचित्र की भांति आँखों के सामने से गुजर गयी ....
मै मुस्करायी ..... उस मंदिर के प्रांगण को नमन किया .... और चल दी ..... अब मै खुश थी .... एक बार फिर से सवालों के जबाब सामने थे ....... !!!!!!!!
प्रियंका राठौर
बेहतरीन परिकल्पना और अहसाह अपने अन्दर का जो सात्विक होने के बाद ही सानिध्य को प्राप्त होता है .....सम्वेदंशील सुन्दर /
ReplyDeleteबहुत सुंदर संवेदनशील अभिव्यक्ति,बेहतरीन रचना,......
ReplyDeleteMY RESENT POST... फुहार....: रिश्वत लिए वगैर....
बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteजब सब समझ आ जाता है तब भावनाएं सरल रूप से अभिव्यक्त नहीं हो पातीं हैं...
मन तो अब भी करता हैं माँ की गोद में बैठने का.....है ना??
bahut khoob.यह चिंगारी मज़हब की."
ReplyDeleteअच्छा है न कि कम से कम एक ठिकाना तो है जहां तुम्हें अपने सारे सवालों के जवाब मिल जाते हैं .
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति ||
ReplyDeleteबधाई ||
आस्था सबसे बडी चीज है ..
ReplyDeleteवैसे सब सवालों के जबाब हमारे अंदर होते हैं ..
आतमा तक पहुंचने की आवश्यकता होती है !!
मेरी तो आँख भर आयी।
ReplyDeleteवाकई कुछ बातें बचपन की हमेशा के लिए दिल पर छाप छोड़ जाया करती हैं। बहुत सुंदर संवेदन शील रचना...
ReplyDeleteसजीव चित्रण के लिए धन्यवाद .
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