Wednesday, October 12, 2011

उलझन.....






प्रश्न - अर्थ के जाल में
उलझी - उलझी सी है
जिन्दगी -
छटपटाहट निकलने की 
कहीं अधिक उलझा 
देती है -
शायद ,अब ऐसा  प्रस्तर 
बनना होगा , जो 
अडिग रहे  हर उलझन  में 
जो अमिट रहे 
हर भावावेशित दलदल में .............!!!!!





प्रियंका राठौर

17 comments:

  1. सुंदर अभिव्यक्ति ...

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  2. भावपूर्ण अभिवयक्ति....

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  3. किसी प्राप्य के लिए प्रस्तर बनना यूँ कहो व्यवहारिक (जो देखने में मिलता है ) बनना सही है, पर एक बात याद रखना - जो मोह से परे खुद को सोचते हैं , वे बहुत कुछ हासिल करके भी गरीब होते हैं , ज़िन्दगी शब्दों में वहीँ नमी पाती है - जो आकंठ मोह में डूबे काँटों पर चलते हैं !

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  4. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें.

    कृपया मेरे ब्लॉग पर भी पधारने का कष्ट करें .

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  5. प्रस्तर भी लगातार प्रहार से टूटते हैं...हाँ यह अवश्य है कि प्रस्तर की अडिगता सराहनीय है...टूटता है पर अपना स्वरुप नहीं छोडता ...पर उसकी कठोरता स्वाभाव में लाना सही नहीं....कितना ग्रहण करना है यह तो स्वयं ही तय करना होगा .

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  6. प्रियंका जी सुन्दर सन्देश देती रचना ..मूल भाव सुन्दर ..उत्तम
    भ्रमर ५
    शायद ,अब ऐसा प्रस्तर
    बनना होगा , जो
    अडिग रहे हर उलझन में
    जो अमिट रहे
    हर भावावेशित दलदल में ...

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  7. सही कहा आपने......

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  8. भावनाओं के दलदल में तैर सीखना पढता है ... पभी पार पाया जाता है .... भावमयी रचना है ...

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  9. बेहद सुंदर भावपूर्ण रचना ...बेहतरीन अभिव्‍यक्ति ।

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  10. बहुत खूबसूरती से भावों को प्रस्तुत किया..बधाई.

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  11. दिल को छू गई... आभार
    मरे ब्लाग पर भी आयें...

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  12. JINDAGI KO JINE KE LIYE ULJHAN BAHUT JARURI HAI

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