बहा के उनका सामान दरिया में
सोचा था मुक्त हो जाऊँगी
अहसासों के दलदल से .
लेकिन यह तो वह आग है
जो न जलती है ना बुझती है
बस सुलगती जाती है .....
उस जीव की तरह -
जो मुक्त हुआ भी
लेकिन मुक्त हो ना पाया
शरीर के छूट जाने पर भी
मोह में जकड़ा बंधा सा .......
प्रियंका राठौर
बहा के उनका सामान दरिया में
ReplyDeleteसोचा था मुक्त हो जाऊँगी
अहसासों के दलदल से .
लेकिन यह तो वह आग है
जो न जलती है ना बुझती है
बस सुलगती जाती है .....
bahut hi badhiyaa
प्रिय प्रियंका
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावों को सरल भाषा में कहा गया है... अच्छी रचना
खूबसूरती से लिखे एहसास ...कहाँ हो पाता है मुक्त कोई ..
ReplyDeleteआखिरी पंक्तियों की उपमा दिल को छू लेने वाली है......यतार्थ परक है ये पंकितियाँ...प्रशंसनीय |
ReplyDeleteखूबसूरती से लिखे एहसास, अच्छी रचना
ReplyDeleteबहा के उनका सामान दरिया में
ReplyDeleteसोचा था मुक्त हो जाऊँगी
अहसासों के दलदल से .
लेकिन यह तो वह आग है
जो न जलती है ना बुझती है
बस सुलगती जाती है .....
बहुत सारगर्भित बात कह दी आप ने
बहुत सुन्दर
बहुत - बहुत धन्यवाद
जीवन की सच्चाई यही है !
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति !