नहीं चाहती मै
मरना अब
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
निभाना चाहती हूँ
उन बातों को
जो बिन कहे ही
वादें बन गयी
तुम्हारे घर आँगन की
फुलवारी बन
तुम्हारा जीवन
महकाना चाहती हूँ ......
क्या हुआ
जो हम पहले ना मिले
या मिल कर भी
ना मिल पाए
कुछ उलझन थी
कुछ तड़पन थी
आज भी बाकी है
उन जख्मों के निशान
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद में है शामिल
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह .....
क्या हुआ जो
सात फेरों के जाल में
ना उलझे
या फिर उलझे और
फिर भी ना सुलझे
कुछ दर्द था
कुछ हालत थे
आज भी राख बाकी है
उस सुलगती हुयी चिता की
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद को स्याह कर गयी है
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह ....
लेकिन अब -
फिर से
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
गुथी हुयी सी
डोर की तरह
तुम्हारी जिन्दगी में
तुम्हारी संगनी बनके ................!!!!!
प्रियंका राठौर
बहुत सुंदर और भावपूर्ण प्रस्तुति...
ReplyDeleteबढ़िया लिखा है...प्रियंका!!आज भी राख बाकी है
ReplyDeleteउस सुलगती हुयी चिता की
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद को स्याह कर गयी है
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह ....सुन्दर!!
अरे आपके 100 फ़ौलोंअर्स हो गए :)
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई।
सादर
bahut sunder bhavnaon se rachi-basi rachna...
ReplyDeletebadhai evam shubhkamnayen..
जीना चाहती हूँ
ReplyDeleteतुम्हारे साथ
गुथी हुयी सी
डोर की तरह
तुम्हारी जिन्दगी में
तुम्हारी संगनी बनके ....
बा इतना ही कहूँगा...
वाह वाह वाह....
सुन्दर भावों से सजी बेहतरीन रचना, वो क्या कहते है कि- 'सुबह का भूला शाम को वापस आ जाय तो बढ़िया’
ReplyDeletekhubsurat rachna. aabhar.
ReplyDeleteatisundar rachana...aabhar...
ReplyDeleteswagat hai aapaka mere blog par..
खूबसूरत ख्वाहिश
ReplyDeleteaafareen anu jee!
ReplyDeletewaah...kafi komal saundarya
ReplyDeleteaapki ye khoobsurat ichcha zaroor poori ho........
ReplyDeleteप्यारी सी कविता है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति.
ReplyDeleteगहरे जज्बातों को जुबान दी है आपने ... प्रेम में गुंथे एहसास ..
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