Wednesday, August 10, 2011

संगनी......






नहीं चाहती मै
मरना अब
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
निभाना चाहती हूँ
उन बातों को
जो बिन कहे ही
वादें बन गयी
तुम्हारे घर आँगन की
फुलवारी बन
तुम्हारा जीवन
महकाना चाहती हूँ ......
क्या हुआ
जो हम पहले ना मिले
या मिल कर भी
ना मिल पाए
कुछ उलझन थी
कुछ तड़पन थी
आज भी बाकी है
उन जख्मों के निशान
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद में है शामिल
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह .....
क्या हुआ जो
सात फेरों के जाल में
ना उलझे
या फिर उलझे और
फिर भी ना सुलझे
कुछ दर्द था
कुछ हालत थे
आज भी राख बाकी है
उस सुलगती हुयी चिता की
जो तुम्हारे और मेरे
वजूद को स्याह कर गयी है
फिर भी हम जी रहे हैं
अपनी अपनी दुनिया में
अपनी अपनी जिन्दगी
एक ही धागे के
दो छोर की तरह ....
लेकिन अब -
फिर से
जीना चाहती हूँ
तुम्हारे साथ
गुथी हुयी सी
डोर की तरह
तुम्हारी जिन्दगी में
तुम्हारी संगनी बनके ................!!!!!




प्रियंका राठौर

15 comments:

  1. बहुत सुंदर और भावपूर्ण प्रस्तुति...

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  2. बढ़िया लिखा है...प्रियंका!!आज भी राख बाकी है
    उस सुलगती हुयी चिता की
    जो तुम्हारे और मेरे
    वजूद को स्याह कर गयी है
    फिर भी हम जी रहे हैं
    अपनी अपनी दुनिया में
    अपनी अपनी जिन्दगी
    एक ही धागे के
    दो छोर की तरह ....सुन्दर!!

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  3. अरे आपके 100 फ़ौलोंअर्स हो गए :)
    बहुत बहुत बधाई।

    सादर

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  4. bahut sunder bhavnaon se rachi-basi rachna...
    badhai evam shubhkamnayen..

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  5. जीना चाहती हूँ
    तुम्हारे साथ
    गुथी हुयी सी
    डोर की तरह
    तुम्हारी जिन्दगी में
    तुम्हारी संगनी बनके ....

    बा इतना ही कहूँगा...
    वाह वाह वाह....

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  6. सुन्दर भावों से सजी बेहतरीन रचना, वो क्या कहते है कि- 'सुबह का भूला शाम को वापस आ जाय तो बढ़िया’

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  7. atisundar rachana...aabhar...
    swagat hai aapaka mere blog par..

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  8. aapki ye khoobsurat ichcha zaroor poori ho........

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  9. बहुत सुंदर प्रस्तुति.

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  10. गहरे जज्बातों को जुबान दी है आपने ... प्रेम में गुंथे एहसास ..

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