Monday, October 4, 2010
श्रद्धांजलि
आज मै आपके सामने अपनी पहली रचना लायी हूँ ................शायद जब आंसूं आँखों में सूख जाते है तो लेखनी स्वतः ही चलना शुरु हो जाती है !
श्रद्धांजलि
एक अजब इन्सान
था जो डॉक्टर
नाम था उसका डॉ. एस. एस . चौहान
लीन समर्पण रत सेवाधर्म में !
अपने कर कमलों से
म्रत्यु शैय्या पर पड़े रुग्ण
को नव जीवन देना ही
थी जिसकी नियति !
वह सबल इन्सान
जो झुकता था केवल
ईश्वर व माँ के आगे !
माँ व ईश आशीष से
कर्मों में रत उसका जीवन
बढता जा रहा था -
तभी नियति ने खेला एक खेल
आया सन्देशा उनके पास
चलना है अमरनाथ यात्रा में
बाबा के दर्शन को ,
धर्म प्रेरित इन्सान
ठुकरा कैसे सकता था
इस प्रस्ताव को !
बोला माँ से -
"जाना है मुझे दर्शन करने बाबा के
मात्र पन्द्रह दिनों की बात है
तुम हाँ करो तो
मै भी पुण्य फल पा लूँ "
सुन उसकी बात
विधवा माँ का ह्रदय कांपा
जिसे पल भर के लिए ना
किया आँखों से ओझल
कैसे जाने दूँ अनजान जगह पर
वह भी पन्द्रह दिनों के लिए !
बेटे की इच्छा ,ईश्वेरीय श्रद्धा ने
माँ के ह्रदय पर पत्थर रखा ,
'हाँ ' को मिल गयी मंजूरी !
१९९६ अगस्त १६ कुछ लोगो के साथ
जिनमे शामिल महंत दयालगिरी भी थे
चल दिए वे दर्शन करने भोले के !
चलते समय बेटे ने कहा -
"पापा - बाबा के नाम के चाबी के गुच्छे लाना "
बेटी बोली -
"काले -काले सुन्दर -सुन्दर जूते लाना "
माँ व पत्नी बोली -
"तुम जल्दी ही सकुशल वापस आना "
जाने से उनके घर में
इंतजार रूप में
एक सूनापन था !
वक्त ने ली करवट
तारीख अगस्त २६ को आया
महंत का वायरलेस मेसेज -
"अमरनाथ में आये तूफान में
डाक्टर चौहान का २२ को हो गया देहावसान !
कर दिया मैंने २६ को क्रिया -कर्म भी !"
हो गया उस देवाशीष का अंत
जो जीता था सबके लिए
लेकिन जी ना सका , स्वयं के लिए !
माँ ,पत्नी व बच्चों के ह्रदय पर
गिर पड़ी बिजली
हो गया इंतजार उनका अनंत !
छूटा सबका खाना -पीना
आंसुओं की धार भी ना बही
अप्रत्याशित उस घटना पर
माँ कहती - लौट आएगा मेरा भईया
पिता के दरबार में , विश्वास के साथ
एक माँ ने भेजा है , अपना लाल ,
सबकी आँखों का तारा !
वह इतना निर्दयी कठोर है नहीं
जो नहीं सुन सकता उस बूढी माँ की पुकार !
माँ की आस की डोर ना टूटी है
ना टूटेगी ,मात्र रात दिन का
इन्तेजार , है उनके जीवन का सहारा !
पत्नी ने भी बच्चों की खातिर
छुपा लिया दिल में दर्द !
छोटी कहती - पापा गए है घूमने
बड़की कहती -जिम्मेदारी सम्भालनी है घर की
वह नादान , जो अभी है खुद ही बच्ची !
शायद यही सत्य है -
कभी -कभी कुछ चले जाने से
सब कुछ खत्म हो जाता है -
जैसे -
तुच्छ धागे में जाते है पिरोये
सुन्दर मोती !
मोती के आगे नहीं है मोल धागे का
लेकिन ना होने से धागे के
बिखर जाते हैं सारे मोती !
लौटे महंत लेकर सामान डाक्टर का
उनका अस्थि -कलश ,
बेटी के जूते , बेटे के गुच्छे
था तो सभी कुछ - परन्तु
वे स्वयं ही नहीं थे
रोते -रोते महंत बताते -
डाक्टर थे ऐसे पुण्यात्मा
साथ ले गये दवा का थेला
राह चलते राहगीरों को
दवा देते बीमारी हालत में
व करते हौसला अफजाई !
क्या अमरनाथ ,क्या लखनऊ
सबकी जुबान पर डाक्टर का था नाम !
जरुरतमंदों के
थे वे एक मसीहा
रो - रोकर सब कहते -
अब कौन करेगा मदद हमारी
थे वे ऐसे देवतुल्य इन्सान
जो रह कर सम्पत्तिवानों के बीच
नहीं भोले थे इंसानियत
मरते को जीवन देना ही था
उनका परम उद्देश्य !
हूँ मै उस म्रत्युन्जय की भांजी
अपने भावों को गूँठ कर शब्दों में
करती हूँ चंद लम्हे उनको समर्पित !
चाहती हूँ देना उनको श्रद्धांजली
हाँ - यही श्रद्धा सुमन होगा -
उनके पदचिन्हों पर चल कर
इंसानों को इन्सान व
जरुरतमंदों को भगवान समझकर
स्रष्टि के कण - कण के लिए मन में
रखूं सेवाभाव
यही होगी सच्ची श्रद्धांजली
उनको बारम्बार नमन के साथ !!
प्रियंका राठौर
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