Friday, October 8, 2010

साभार: दैनिक जागरण ......

साभार: दैनिक जागरण ......


जीवन में शांति


 मन अनुभूतिशील है। मन के अनुकूल होने पर हमें सुख की अनुभूति होती है, तो प्रतिकूल अवस्था दु:ख देती है। सुख और दुख ऐसी अनुभूतियां हैं, जो प्राणी को प्रभावित करती हैं। हमारे मन के अनुकूल घटनाएं न होने के कारण हमें दु:ख से भरा संसार प्रतीत होता है। लेकिन देखा जाए, तो सांसारिक सुख या दुख की अनुभूति वास्तविक नहीं है। यह हमारे मन द्वारा ही सृजित की हुई है। मनुष्य अंदर से प्रतिकूल आचरण करने के साथ ही ईष्र्या-द्वेष छिपाये रहता है। कृत्रिम अनुकूलता के आचरण-प्रदर्शन से ही सुख और दुख का भ्रम उत्पन्न होता है।



जगत में सुख-दुख का भ्रम स्थायी नहीं है। कहीं मान-सम्मान होने पर सुख की अनुभूति होती है। अपमान होने पर दु:ख की अनुभूति होती है। किसी के साथ अच्छा संबंध रहने तक सम्मान प्राप्त होता है। संसार के संबंधों में कटुता आने में देर नहीं लगती। किसी वाद-विवाद में अपमान का सामना करना पड़ता है। अपमान की स्थिति में दु:ख की अनुभूति होने लगती है। इसका निष्कर्ष निकलता है कि अपेक्षाएं दु:खों में वृद्धि करती हैं। भिन्न-भिन्न प्रकार के स्वभाव वाले संसार में सभी को प्रसन्न कर पाना असंभव है। सभी की प्रसन्नता तो दूर की बात है, किसी एक मनुष्य को सदा प्रसन्न रख पाना ही कठिन है। किसी एक व्यक्ति के मन के अनुसार सदा चलना दुष्कर है। इसलिए हमें दूसरों से भी अपेक्षाएं नहीं रखनी चाहिए।



प्रसन्नता और शांति के लिए संसार की अनुकूलता-प्रतिकूलता पर अधिक मनन नहीं करना चाहिए। यह भी एक प्रकार की अपेक्षा का ही परिणाम है। तुलसी ने कहा है-गहि न जाय रसना काहू की। कोई कुछ भी करे, कुछ न कुछ दोष ढूंढने वाले मिल ही जाते हैं। जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक स्थिति को अनुकूल समझकर प्रसन्न रहने का प्रयास आवश्यक है। संसार की तरफ से होने वाली अनुकूलता-प्रतिकूलता के कारण सुख-दु:ख, हर्ष-शोक और आदर-अनादर का अनुभव होता है, जिससे मन में चंचलता आती है। यह चंचलता अशांति बढ़ाती है। सांसारिक अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं से मन को दूर किए बिना शांति मिलने वाली नहीं है। इसके लिए सबसे अधिक आवश्यक है कि मन को वृत्तियों से दूर रखा जाए और केंद्रित किया जाए। मन को केवल अपने लक्ष्य पर लगाने से ही शांति मिलती है। शरीर को सांसारिक कर्तव्यों की पूर्ति में लगाकर और कर्म के साथ मन को सदा एकाग्रचित रखना ही मंगलमय है। इसीलिए ईश्वर में मन लगाने से मन केंद्रित होता है और शांति का अनुभव होता है।



लेकिन हमें अपने मन को निष्काम भाव से केंद्रित करना चाहिए। सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान में मन लगाना उचित नहीं। धन-ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा, कीर्ति की लिप्सा से व्याप्त होकर की जाने वाली साधना से शांति नहीं मिल पाती। इससे केवल दु:ख, अशांति ही हाथ लगती है। सच्चा सुख और सच्ची शांति सांसारिक अनुभूतियों के हटकर निष्काम भाव से अपना कर्म करने से ही प्राप्त होती है।


साभार: दैनिक जागरण ......

11 comments:

  1. अच्छे विचारों की प्रस्तुति प्रियंका जी। अपनी ही लिखी पंक्तियों की याद आयी-

    दुख ही दुख जीवन का सच है लोग कहते हैं यही
    दुख में भी सुख की झलक को ढ़ूँढ़ना अच्छा लगा

    सादर
    श्यामल सुमन
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  2. हमें अपने मन को निष्काम भाव से केंद्रित करना चाहिए। सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए भगवान में मन लगाना उचित नहीं। धन-ऐश्वर्य, पद-प्रतिष्ठा, कीर्ति की लिप्सा से व्याप्त होकर की जाने वाली साधना से शांति नहीं मिल पाती। इससे केवल दु:ख, अशांति ही हाथ लगती है
    thanx bahut khoob ...........

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  3. प्रियंका जी,अच्छा लिख रही हैं।लिखते रहिए।http://maheshalok.blogspot.com/
    डा० महेश आलोक

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  4. Badhiya vicharo ke sath apka swagata hai.

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  5. हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
    कृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करने का कष्ट करें

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  6. हौसला अफजाई के लिए आप सभी को धन्यवाद .....

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  7. टूट जाते हैं सभी रिश्ते मगर
    दिल से दिल का राबता अपनी जगह
    दिल को है तुझ से न मिलने का यकीन
    तुझ से मिलने की दुआ अपनी जगह .....

    बहुत उम्दा लिखती है आप ....प्रियंका जी ..शुभ कामनाये..

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  8. अच्छे विचारों की प्रस्तुति|

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  9. अच्छे विचारों के विस्तार का ये प्रयास सराहनीय है.
    इसी तरह अपने विचारों से भी पाठकों को अवगत कराती रहें..
    बधाई.

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  10. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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